बलिया विद्यालय के प्राथमिक के भैयाओं के द्वारा स्वामी विवेकानंद जी की सजीव झांकी प्रस्तुत किया गया।
नवलजी, बलिया (उत्तरप्रदेश)
12 जनवरी 2023:
इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि श्री नाथबाबा मठ के पीठाधीश्वर श्री कौशलेंद्र गिरी जी महाराज , कार्यक्रम की अध्यक्षता जिले के वरिष्ठ चार्टर्ड अकाउंटेंट विद्यालय के सह प्रबंधक श्री ईश्वरन् श्री जी एवं विद्यालय के यशस्वी प्रधानाचार्य श्री अरविंद सिंह चौहान जी द्वारा अतिथियों का परिचय एवं स्वागत स्मृति चिन्ह अंगवस्त्र द्वारा किया गया।
इस अवसर पर विद्यालय के प्रधानाचार्य श्रीमान अरविंद सिंह चौहान जी ने कहा कि स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 को हुआ। उनका घर का नाम नरेंद्र दत्त था। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहां उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ। सन् 1884 में विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेंद्र पर पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। कुशल यही थी कि नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। अत्यंत गरीबी में भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। उस समय रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंस जी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंस जी की कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ। फलस्वरूप नरेंद्र परमहंस जी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ।
अपने उदबोधन में मुख्य अतिथि श्री कौशलेंद्र गिरी जी महाराज ने कहा कि स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुंब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत हाजिर रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। उनका मानना था कि ऐसा कार्य करे जिससे समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की सुगंध फैला सके। 25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन् 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानंदजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे। यूरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए।
इस अवसर पर कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री ईश्वरन जी (विद्यालय के सह प्रबंधक) ने कहा कि अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’ यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।
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